सामाजिक विषमता तथा विवशता

सामाजिक विवशता अथवा विषमता
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समस्त प्रकृति परिवर्तनशील है तथा यह एक सतत प्रक्रिया है।

यदि आप स्वाभाविक रूप से परिवर्तन को अंगीकार नहीं करेंगे तो आप अपने ही परिवार, समाज, गाँव, देश प्रदेश एवं विदेश में भी असमीचीन, अप्रासंगिक तथा गौण होकर रह जायेंगे।

देशकाल (देश अर्थात् स्थान, काल अर्थात् समय)  के अनुरूप हमें स्वत: तथा सहजत: बदल लेंना अत्यावश्यक है।

वस्तुत: हमें विशिष्ठ-विषयवस्तु की "उपादेयता तथा व्यावहारिकता" को "तात्कालिक देश-काल” की परिस्थितिजन्य-परिवर्तनशील सिद्धस्थ-परिवेश जो सार्वभौमिक रूप में स्वीकार्य है -- को सर्वांगीण स्वरूप से अंगीकार कर लेना ही जीवमात्र के लिए श्रेयस्कर है -- अन्यथा हमें, अन्तत: प्रकृति स्व:-स्वरूप में  अवश्य ही ढ़ाल लेगी -- जो हमें विषमताओं के उपरान्त भी प्रकृति विरोधक अथवा प्रकृति-जयी नहीं होने देगी।

शक्कर एक व्यक्ति के लिए जीवनस्त्रोत है तथा दूसरे के लिए यही मृत्यु कारक होती है।
यह दोष शक्कर में नहीं है अपितु तात्कालिक परिस्थितिजन्य परिवर्तित घटकों  के अनुरूप इसके उपयोग कर्ता भर निर्भर है -- उसी के अनुसार गुण-दोष जनित फल की निष्पति भी होती है।

हमें अपने कर्मों को शक्कर की भांति उनकी उपादेयता, उपयोगिता तथा व्यावहारिकता को हमारी तात्कालिक देश-काल के अनुसार कर्त्तव्य अथवा अकर्त्तव्य है -- निर्धारित करना होगा।

परिवार, समाज, देश ने हमें जो भी प्रकृतिप्रदत्त-भौतिक अथवा अप्राकृतिक (अलौकिक) संस्कृति या संसाधनों की अनुपम प्रतिकृति उपहार स्वरूप दी है -- उसका संरक्षण तथा सदुपयोग हमारा प्रथम तथा परम कर्त्तव्य है।

गगनचुम्बी पर्वतमालाएं, अविरल एवं सतत् प्रवाहित झरने, कल-कल करती नदियाँ, हरे-भरे वन-उपवन, लताकुञ्ज, विशालकाय भवनों, और अट्टालिकाओं में दिव्य ब्रह्म स्वरूप देवी-देवता प्राणप्रतिष्ठित है

दिव्य-ज्योति-पुञ्ज हमें जीवनदायिनी प्राणवायु तथा तेज का प्रस्फुरण हमारे इस नश्वर पिण्ड को दिव्यता तथा सजीवता प्रदान करतें हैं।

क्या हम स्वयं तथा हमारा समाज विपथगामी हो गया है ?,  जो सदैव अकर्त्तव्य कर्म करने में लिप्त हो गया है।

कर्तव्य का उत्तरोत्तर उस प्रकार त्याग कर रहा है -- जिस प्रकार पतझड़ में वृक्ष  एवं लताऐं अपने पुष्प एवं पर्णिकाएं, सर्प बिल एवं केंचुली तथा अण्डज वृक्ष एवं घोंसलों का अपर्योजनीय समझकर त्याग कर देते हैं --कदाचित वे सभी कालोचित्त एवं परम तथा सर्वोत्तम कर्त्तव्य-कर्म समझकर ही परित्याग करते है।

क्या हम वृक्षों, सर्पों तथा पक्षियों आदि की भाँति कर्त्तव्य-कर्म से विमुख हैं ?, अथवा हमारी स्वार्थपूर्ण विवशता, अनैतिकता, प्रपञच, प्रलोभन है ! अथवा हमारी अशिक्षा, अनभिज्ञता, विवेकहीनता, विभ्रान्ति या वे अबोधगम्य परिस्थितियाँ जो हमारी अदूरदर्शिता का अवकाश बन चुकी हैं।

संदेश के मूल उद्देश्य तथा प्रयोजनार्थ सर्वप्रथम "एक सुविचार" का सूक्ष्म अवलोकन आवश्यक है, ताकि स्वयम् को यह अभिज्ञान हो सके कि सुन्दर विचार तथा मानसिकता होने के उपरान्त भी व्यक्ति के कर्म स्वयम् के विचारों से सम्यकता नहीं रखते।

र्थात् विचार सराहनीय तथाअनुकरणीय होते हैं, लेकिन स्व कर्म ठीक प्रतिकूल -- ऐसा क्यों ? --

क्योंकि प्रभावशाली व्यक्तित्व, पुरुष, मित्र, सखा से भयभीत हैं, या अनुग्रहित हैं, विवश हैं, दोषी हैं या अपराध बोध से ग्रस्त है।

यदि ऐसा है, तो व्यक्ति प्रत्यक्ष तथा परोक्ष स्वयम् के साथ साथ समाज की हानि का सहभागी होता है -- भले ही आभास न हो, यह तथ्य अवश्य ही सत्य है।

सुविचार:
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गुणविषयक विचार

१) मद्यपान:
शराबी को शराब से अच्छा जो कुछ भी लगता है, वह शराब नहीं शराबी की संगति तथा सन्सर्गता होती है।

२)स्तेय:
चोर को चोर ही सुहाता है, क्योंकि वही है जो उसे जिविकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराने के साथ साथ सहभागी भी होता है।

दुर्व्यसन में लिप्त शराबी, नशेड़ी तथा चोर अपने साथी एवं सहयोगी के लिए माता-पिता, गुरु तथा परिजनों के प्राण हर लेने में किञ्चित मात्र भी संकोच नहीं करतें हैं - यह तथ्य सर्व-विदित है

३) आकर्षण /(सम्मोहन):
चुम्बक लौह को ही आकर्षित करने की क्षमता रखता है, अपितु उसी लौह अयस्क से निर्मित इस्पात के एक छोटे से कण को उच्च-क्षमता-धारित चुम्बक भी आकर्षित करने में असफल हो जाता है।

जिसका मुख्य कारण है -- लौह अयस्क से इस्पात (एक मिश्र-धातु) में गुणों के रुपान्तरण के पश्चात -- लौह में सम्यक् गुणवृति के अवकाश का उत्पन्न होना है -- अर्थात् इस्पात में पदार्थ की मूल धर्मिता का बदलाव

४) कर्मनिष्ठ-विवेक:
किसी व्यक्ति का चुनाव एवं पहचान क्षमता तथा योग्यता उसके व्यक्तित्व, कर्तृत्व, कृतकृत्यता तथा चरित्र का परिदर्शन होती है -- वस्तुत: उसका चुनाव उसके चारित्रिक गुणों-अवगुणों का ही प्रतिबिम्ब है।

५) सम्यक् दृष्टिकोण:
सधारणत: सभी जीवों के पास दो आँखे होती है, जो कि समान रूप से दृश्यमान होते हुए भी भिन्न है।

तथापि आँखों की दृष्टिपात तथा दृष्टिगत-शक्ति सदैव भिन्न-भिन्न होती है।

यथार्थत: एक जैसे व्यक्तियों, व्यक्तित्व वाले पुरुषों में भी, यह भिन्न-भिन्न वस्तुगत  दृश्यात्मक-क्षमता के अनुसार ही सार्वभौमिक एवं त्रिगुणात्मक (सत, रज, तम) दृश्यावलोकन के कारण ही -- भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखती है -- अर्थात् दो समान आँखों के सन्दर्भ में  दो आँखों का असमान दृष्टिकोण -- अन्य शब्दों में व्यक्ति के सन्दर्भ में उसकी विकृत मानसिकता है।⁸

६) भयाचरण अथवा भिरूता:
भेड़ की विषेशता है  -- उसे झुण्ड में रहने का व्यसन है।

एक भेड़ आक्स्मिक खाई में गिर जाती है -- सभी भेड़ें उस एक भेड़ के रक्षार्थ अथवा उसकी आपदा-न्यूनीकरण के लिए "परामर्श के अभाव" में "विवेक-हीन अनुसरण" करती हैं -- अन्तत: उसी खाई में गिरकर अपने जीवन के साथ, साथी की जीवन लीला को भी अकाल मृत्यु का ग्रास बना देती है।

७) मूढ़ वृति:
मूढ़ता एक ऐसी वृति है जो जातक को भेड़ के समान अविज्ञ बना देती है, जैसे भेड़ जो भी कार्य करती है, उचित-अनुचित के विभेद या संज्ञान के बिना ही सदैव उचित कर्त्तव्य समझकर ही करती है,  जबकि यह सर्वदा न सत्य होता है और न ही कदाचित यथार्थ ही होता है।

उपरोक्त संकलन एवं सम्बोधन का सारांश है -- स्वार्थपूर्ण द्वन्दात्मक विकृत मानसिकता तथा द्वैधादिक्य ग्रसित विवेक।

कोई भी मनुष्य किसी भी दुष्ट प्रकृति पुरुष के गुणों, अवगुणों को अपने पुत्र, पति, एवं पिता में देखना नहीं चाहते हैं, और न ही उसके जैसी संतान।

अपने परिवार जनों का विरोध करके भी उस दुष्ट प्रकृति पुरुष के पाप कर्मों के सहभागी बनकर समाज की अपूरणीय क्षति करने में किन्चित मात्र भी संकोच नहीं करतें हैं, भले सभी प्रियजनो का त्याग क्यों न करना पड़े।

किसी भी मनुष्य की ऐसी  मानसिकता उसके जैविकीय गुणों का विखणडन कहलाती है -- जो कि अन्ततः समयोचित उपचार के अभाव में विक्षिप्तावस्था को प्राप्त कर लेती है, जो कि सभी जीवों विभिन्नताओं के साथ पायी जाती है।

हम किस पटल परखड़े हैं, कौन किस श्रेणी अथवा किस विशेष पंक्तिबद्ध है -- अविवेक से नहीं अपितु अपने विवेक से समझना आवश्यक है।

क्योंकि एक विक्षिप्त व्यक्ति अन्य स्वस्थ व्यक्ति को भी विक्षिप्त ही समझता है -- कारण सुस्पष्ट है कि वह संज्ञाहीनता के कारण सोचने की क्षमता से क्षीण हो चुका है।

१) मद्यपान

२)स्तेय

३) आकर्षण /(सम्मोहन)

४) कर्मनिष्ठ-विवेक

५) सम्यक् दृष्टिकोण

६) भयाचरण अथवा भिरूता

७) मूढ़ वृति

उपरोक्त सभी गुणविषयक घटक व्यक्ति की स्वस्थ मानसिकता को अवश्य ही प्रभावित करतें है, समाज में व्याप्त असमानता, जातिवाद, रूढ़िवादिता, अशिक्षा अंधश्रद्धा जैसी प्रवृतियां भी व्यक्ति के जीवन काल में किसी न किसी स्वरूप में उसके मूल चरित्र को प्रभावित करती है।


इतना तो स्पष्ट परिलक्षित है तथा सत्य भी है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण परिस्थितिजन्य उपादानों के कारण एवम् विविध विवशताएं, असामान्य, असामाजिक कर्म के कारण परिवर्तित हो जाता है जो‌ कि किसी न किसी रूप में सामाजिक विवशता तथा विषमता का ही द्योतक है। 



शतायुरोन्मुखोभिवृद्वि

धन्यवाद
भँवरलाल दाधीच।

  

क्रमशः----

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