दृष्टिकोण: एक विभेदकारी प्रज्ञा:
दृष्टिकोण तथा चेतना:
सामान्य व्यक्ति अपनी धारणाओं को क्षण-प्रतिक्षण एक दूसरे के प्रति अधिकांशतः अकारण ही बदलता रहता है -- यह आपसी विद्वैष का एक मूल कारण है, जो कि सदैव स्वयम् प्रज्ञा का अभाव है, तथा स्वयम्-प्रज्ञा का यही अभाव समभाव एवम् सम्यक् दृष्टिकोण के भाव को दूषित करके अहम्-भाव को जागृत कर देता है।
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संस्कृत सुभाषितानी में प्रज्ञा के सन्दर्भ में एक श्लोक है जो इस तथ्य को प्रबलता से सिद्ध कर करता है --
यस्य नास्ति स्वयम् प्रज्ञा, शास्त्रम् तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्याम् विहीनस्य, दर्पण: किम् करिष्यति।।
अर्थात् जिसके पास स्वयम् की बुद्धि (ज्ञान) नहीं है, उसका शास्त्र भी भला नहीं कर सकते हैं, जैसे आँखों से अन्धे के लिए दर्पण क्या कर सकता है।
यही कारण है स्वयम्-प्रज्ञा का अभाव, भिन्न तथा त्रुटि पूर्ण दृष्टिकोण के कारण ही, कदाचित् विवेकीजन भी "पूर्ण चेतना" से निर्णय लेने के उपरान्त भी लक्ष्य प्राप्ति में असफल हो जातें हैं, कारण, "सम्पूर्ण चेतना" के अवकाश का होना है, ऐसा इसलिए है, क्योंकि पूर्ण एवम् सम्पूर्ण में अन्तर है -- पूर्ण है, अपितु सम्पूर्ण नहीं है, चूंकि सम्पूर्ण में उपसर्ग के जुड़ने से मूल शब्द के अर्थ का भाव व्यापक हो गया है, इसलिए समान अर्थ वाले शब्द होने पर भी हमारे दृष्टिकोण भेद के बड़े कारक बन जाते है तथा स्वयम् प्रज्ञा का अभाव उपसर्ग की व्यापकता को अंगीकार नहीं कर पाता है, और व्यक्ति दृष्टि-भेद का ग्रास बन जाता है।
दृष्टिकोण एवम् उपसर्ग बोध:
”पूर्ण” शब्द में उपसर्ग के जुड़ने पर विशेष अर्थ का बोध कराता है, जैसे कि विशेष रूप से पूर्ण का होना, प्रथम-दृष्टि में इसके भेद का अवलोकन सूक्ष्म दृश्यमान है, जैसे पूर्ण; पूर्ण है तथा सम्पूर्ण भी पूर्ण है, (वस्तुत: सम्पूर्ण में पूर्ण विद्यमान है), दोनों शब्दों में पूर्ण उपस्थित है, अत: अन्तर नगण्य प्रतीत होता है।
अन्य दृष्टि में, इसके विभेद का अवलोकन अतिसूक्ष्म दृश्यमान प्रतीत होता हैं, तथा दोनों में अन्तर होने का भाव प्रकट होता है, जैसे पूर्ण; 'पूर्ण' तो है अपितु 'सम्पूर्ण' अवस्था में नहीं है।
दृष्टिकोण तथा दृष्टि-दोष:
उदाहरणतः जल पूरित-कलश का अवलोकन करना वस्तुत: एक सामान्य प्रक्रिया है --
१) कलश जल से पूर्ण रूप से पूरित है।
२) कलश जल से सम्पूर्ण रूप से पूरित है।
३) कलश जल से सम्पूर्ण रूप से परिपूरित है।
उपरोक्त सभी वाक्य है, वाक्यांश नहीं है, भिन्न भिन्न होने के उपरान्त भी अभिन्न-विषयवस्तु यथा तीनों अवस्थाओं में "जल-पूरित-कलश" का बोध करातें है, जबकि तीनों वाक्य वस्तुगत कलश की भिन्न गुणवत्ता का बोध कराते हैं, हम दृष्टि-दोष अथवा दृष्टिभ्रम के कारण कलश में जल की पूर्णता तथा सम्पूर्णता को व्यक्त नहीं कर पाते हैं -- क्योंकि हमने अच्छी तरह से कलश को नहीं देखा।
दृष्टिकोण एवम् नगण्य भाव:
वस्तुत:हमारी विवेकपूर्ण चेतना, विज्ञता तथा संज्ञाबोध होने के उपरान्त भी हम इस सूक्ष्म-भेद का सामान्यत: सम्पूर्ण अवलोकन करने में असमर्थ हैं, क्योंकि दोनों शब्दों में “तुच्छ (नगण्य) प्रतीत होने वाले अन्तर” को समझना; हमारे दैनन्दिन व्यवहार में शामिल नहीं है, कारण यह है -- किसी विषयवस्तु के सन्दर्भ में, हमारा विवेक, "हमारी चेतना के सामर्थ्य के अनुरूप" ही शब्दों की गुणवत्ता तथा अर्थ का केवल सीमित बोध ही करा पाता हैं, और हम “सम्पूर्ण” को सदैव पूर्ण ही समझते हैं, (बल्कि साहित्यिकार की भाषा में इन्ही शब्दों के अन्तर की बोधगम्यता अपवाद अवश्य है), साधारणतः तुच्छ अन्तर को हम नगण्य समझकर टाल देते हैं, जबकि दोनों शब्दों में शब्द-व्युत्पत्ति भेद स्पष्टतया परिलक्षित है, यथार्थत: दृष्टिकोण-भेद उपस्थित है।
दृष्टिकोण भेद का एक प्रमाणित दृष्टांत:
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन को गीतोपदेश दिया, धृतराष्ट्र के सारथि संजय ने दिव्य दृष्टि से सम्राट धृतराष्ट्र को सुनाया, तीनो श्रोताओं -- जिनमें अर्जून, संजय तथा धृतराष्ट्र ने एक ही उपदेश को पूर्णतः सुनने के उपरान्त भी, 'अभिन्न-विषयवस्तु' को, भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से समझा, परिणामस्वरूप भिन्न भिन्न परिस्थितियाँ निर्मित हुई, तथा परिणीती भी तदनुरूप घटित हुई -- अक्षरस: एक ही सदुपदेश के परिणाम अलग अलग क्यों घटित हुए ?....
यहाँ एक प्रश्न मुखरित होता है कि -- वह कौनसा मूल उपादान है जिसके कारण -- "हमारी विवेकपूर्ण चेतना भी उक्त वर्णित, इस सूक्ष्म विभेद का पूर्णतया अवलोकन करने में असमर्थ हैं।"
प्रश्नोत्तर: कलश रूपी ‘मस्तिष्क’ अर्थात् (विवेक) का जल रूपी 'सम्पूर्ण-चेतना' से 'परिपूरित' -- नहीं होना है।
दृष्टिकोण तथा अभिलाषा:
प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान सत्यनिष्ठा, आत्मविश्वास, सुग्राह्यता तथा चेतना की -- क्षमताएं एवम् योग्यताएं -- जो कि उस व्यक्ति की तात्कालिक मन: स्थिति, उसका अभिष्ट-पर्याय , निहित-स्वार्थ तथा उच्च अभिलाषा की आकांक्षाओं के घटकों से त्वरित प्रभावित एवम् प्रेरित हो जाती है और यही अभिलाषा दृष्टिभेद पैदा कर देती है।
दृष्टिकोण एवम् विवेकहीनता:
उक्त तीनों श्रोतागण, अपनी बुद्धि-विलास तथा उल्लिखित सभी अवस्थाओं के अनुसार, परिस्थितिजन्य अभिष्ट-लक्ष्य की प्राप्ति हेतु, अलग-अलग मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं, फलत: कुमार्गी अथवा सुमार्गी हो जातें हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण का उपदेश पूर्ण चेतन-अवस्था में सुनकर भी ज्ञान से अभिभूत नहीं हुए धृतराष्ट्र की महाभारत युद्ध में विजय की "उच्च आकांक्षा" -- उसके कुल के समूल विनाश की परिणिति में बदल गई, कारण यह था कि उपदेश का श्रवण पूर्ण रूप से किया बल्कि सम्पूर्ण रूप से नहीं किया, पूर्ण एवम् सम्पूर्ण का अतिसूक्ष्म भेद अन्ततः विवेकशुन्यता में बदल गया, इसी प्रकार एक एक बुद्धिमान व्यक्ति भी दृष्टिभेद को पोषित कर लेता है।
सूक्ष्मान्तर एवम् परिणाम:
पूर्ण एवम् सम्पूर्ण में एक सूक्ष्मान्तर है, सम्पूर्ण: अर्थात् विशेष रूप से पूर्ण है, जैसे कि कलश सम्पूर्णत: जल से परिपूरित है, उसमें अब और अधिक, किञ्चित मात्र भी जल समाहित होने की सम्भावना नहीं है -- क्योंकि कलश सम्पूर्णत: जल से परिपूरित है, शब्दान्तर अति सूक्ष्म है अपितु परिणाम व्यापक है।
दृष्टिकोण एवम् स्वयम् प्रज्ञा:
सभी घटक अपने आप को पूर्णतः सही समझते हैं, वस्तुत: यह सत्य भी है लेकिन -- विषयवस्तु की गुणबोधक अवस्थाएं भिन्न होने के फलस्वरूप निर्णायक भूमिका, 'स्वयम्-प्रज्ञा: के अनुसार, सर्वोचित होने का आभास तो कराती है -- लेकिन यदि प्रतिपक्षी का कथन एवम् गुणबोधक अवस्थाएं भिन्न हुई तो तर्क एवम् वितर्क के असंख्य पुष्प-कंटक उसी परिवेश में उद्भिज्ज हो जातें हैं -- जैसे गुलाब का पौधा, माली अथवा उस पुष्प के ग्रहण कर्त्ता की छोटी सी भूल के लिए, उसके पुष्प-कंटक-प्रहरी, भूलकर्ता को तत्क्षण दण्डित कर देतें हैं, जैसा कि स्वयम् प्रज्ञा हम लेख के पूर्वार्द्ध में समझ चुके हैं, जागृत-प्रज्ञा (ज्ञान, चेतना) सदैव अपरिहार्य है।
दृष्टिकोण एवम् व्यवहार:
"उक्त दृष्टांत का नैतिक उपदेश: जिस प्रकार पुष्प के साथ उसकी कोमलता एवं प्राकृतिक संरचना के अनुरूप व्यवहार करना ही श्रेयस्कर है, अन्यथा दण्ड-भागी होना पड़ता है, उसी प्रकार सार्वजनिक जीवन में भी सुव्यावाहारिक-आचरण करना ही सर्वोचित होगा तथा यह अपरिहार्य भी है।"
जीवन की सामान्य तथा भिन्न प्रवृतियां एवंम् अन्तर्निहित दृष्टिकोण:
दृष्टिकोण तथा चक्षु-भेद:
हमारे दो चक्षु है, दोनों चक्षुओं की दृश्य-क्षमता एवम् सीमाओं में सम्यक्ता नहीं है, दोनो चक्षुओं में एक चक्षु की दृश्यमान क्षमता अन्य चक्षु के अनुपात में साधारणतः न्युनाधिक होती है, कदाचित् यह भौतिक एवम् वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, अपितु व्यावहारिक दृष्टिकोण में चक्षु-धारक के साथ भेदभाव सुस्पष्ट विद्यमान है, अर्थात् हमारे चेतन तथा अवचेतन मन में वैचारिक द्वन्द्वात्मकता (जैसे उत्तम या कलुषित विचार) दो चक्षुओं की भाँति स्वाभाविक रूप से विद्यमान है, चिरस्थाई है।
दृष्टिकोण एवम् गुणग्राह्यता:
उपरोक्त दृष्टान्त का प्रयोजन केवलमात्र यह समझने के लिए है कि जिस प्रकार व्यक्ति की भौतिक एवं वैज्ञानिक आधार पर प्रामाणिक योग्यता के अनुरूप, उस व्यक्ति का सहज एवम् स्वाभाविक दृष्टिभेद अस्तित्व में है, उसी प्रकार उसी व्यक्ति की सदाशयता, सदाचार, न्यायप्रियता, सहिष्णुता, उदारता, शिक्षा, ईष्ट-विषय की समग्र-ज्ञान प्रवीणता, समभाव, अनुशासन एवम् विवेक के अतिरिक्त अष्टांग योग में वर्णित यम (अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहां:यमा:)एवम् नियम (शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्र्वरप्रणिधानानि नियमा:” की अन्तरबोधगम्यता के भावों से भावित-विद्यमानता का होना अथवा उसका आंशिक या सम्पूर्ण अवकाश (अर्थात् शुन्यता या अभाव) के होने पर उस व्यक्ति का दृष्टिकोण, परिस्थितिजन्य उपादानों के अनुरूप, भिन्न भिन्न स्वरूप से प्रभावोत्पादक एवम् गुणात्मक दृष्टिकोण से अंगीकारक, स्वीकार्य अथवा अस्वीकार्य घटित होगा।
अर्थात् किसी भी व्यक्ति का दृष्टिकोण अन्य व्यक्ति के सन्दर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से, उस व्यक्ति में अन्तर्निहित तथा दीर्घस्थाई "गुणावगुणो" के अनुरूप एवम् अनुपात में, सहज उपस्थित होगा, क्योंकि वह उल्लिखित विभिन्न विषयों से प्रभावित है -- फलस्वरूप: प्रत्येक विषयवस्तु के अवलोकन, परिशीलन, अनुशीलन एवम् सुग्राह्यता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में "दृष्टिकोण-विभेद" अवश्य ही जड़ कर लेता है।
दृष्टिकोण एवम् तर्क वितर्क:
मेरी अल्पदृष्टि में यह भेदपूर्ण-दृष्टिकोण ही तर्क एवम् वितर्क का एकमात्र मूल कंटक है तथा यही प्रमुख उपादान है।
वस्तुत: हमारा वैचारिक मतभेद अधिकांशतः आपसी दृष्टि-भेद है, क्योंकि परिस्थितिजन्य या अप्रत्याशित-कारणवश हम प्रतिपक्षी के दृष्टिकोण का तात्कालिक-घटना के घटित होने के समय, यथोचित मूल्यांकन करने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं करतें हैं, और हमारी अविवेकपूर्ण उद्वेलित मन:-स्थिति, हमारा सुमार्ग अवरूद्ध कर देती है -- और सर्वप्रथम "वितर्क" को जन्म देतें हैं, जो कि "प्रतिकूल-वातावरण" स्वत: ही प्रति-पक्ष को तर्क का अभिप्राय तथा उपादान दोनों एक साथ प्रदान कर देता है।
दृष्टिकोण एवम् वैमनस्यता:
तर्क का अभिप्राय तथा उपादान ही आपसी वैमनस्यता की आरम्भिक अवस्था है, जो कि अधिकांशतः दृष्टिकोण-भिन्नता के कारण है, जबकि मूलतः दोनों घटक व्यक्ति पूर्वकालिक अवस्था के अनुसार अभी भी अत्यन्त सहजस्थ है, यहाँ घटक व्यक्ति से तात्पर्य उन दो व्यक्तियों से है जिनमें दृष्टिभ्रम के कारण वैमनस्यता घर कर गई है, अन्यथा दोनों सहज स्थिति में अवस्थित है।
जबकि वैमनस्यता कारण केवल तर्क एवम् वितर्क का होना अत्यन्त निन्दनीय है, प्रतिपक्षी के दृष्टिकोण को समझने के अतिरिक्त, स्वीकार्यता के साथ साथ अंगीकार करने के भावों होना भी नितान्त अपरिहार्य है।
दृष्टिकोण एवम् विकृत मानसिकता:
तर्क एवम् वितर्क एक विकृत मानसिकता है, जिसकी निष्पति सदैव अपूर्ण ही होती है, कदाचित् ही तर्क वितर्क से सुखद-अपवाद मुखरित होता है, यदि हम दृष्टि-दोष को भलि भाँति समझ पाने में सक्षम या समर्थ हो जातें हैं तो हम दृष्टिकोण जनित विकृत मानसिकता से कभी भी ग्रस्त नहीं होंगे।
तर्क वितर्क -- एक सूक्ष्मावलोकन:
१) वितर्क: सन्देहास्पद प्रश्न होता है
२) तर्क: सन्देहास्पद विवादित उत्तर होता है
३) आवेश: बुद्धि-विनाशक होता है
४) परिणाम: सन्देहास्पद विवादित प्रश्नोत्तर, अर्थात् तर्क वितर्क होता है।
५) समष्टि: वितर्क का सम्पूर्ण एवम् सटीक प्रत्युत्तर का अवकाश होना ही आवेशित-तर्क का मूल उपादान है।
उपसंहार:
दृष्टिकोण तथा तर्क वितर्क के "असंख्य घटक" हैं, जो कि प्रतिकूल-वातावरण तथा वैमनस्यता पैदा करतें हैं, परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, प्रकृति के अनुरूप ही विविध प्रकार से व्यक्ति में दृष्टिकोण-विभेद समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार उत्पन्न होते रहते हैं, यह देश (स्थान) कालिक (सामयिक) एवम् स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो सम्पूर्ण वैश्विक स्तर पर उत्तरोत्तर भौतिक-परिवर्तन होते रहते हैं, जिसके निम्नलिखित असंख्य घटक हैं, जिससे मनुष्य में परिवर्तन होते रहते हैं, परन्तु सहजता से, स्वाभाविक रूप से स्वीकार्यता के अभाव के कारण समाज में विभिन्न विसंगतियां उत्पन्न हो जाती है, जो दृष्टिकोण विभेद पैदा कर देती हैं।
प्रकृति के परिवर्तनशील विविध घटक:
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परिवर्तनशील घटक:
काल:( ¹युग, ²शताब्दी, ³काल, ⁴पल एवं ⁴.¹मुहुर्त) -- आदि के अनुसार परिवर्तित
अवस्थाएं: परिस्थितियों, ²परिवेश, ³देश एवं ⁴देश-काल -- के अनुकूल उपरोक्त सबके अतिरिक्त
उप अवस्थाएं: ¹भिन्न-भिन्न या ²अविभिन्न -- विचारधाराओं और दष्टिकोण से प्रभावित
प्रकृति एवं पदार्थ: ³भोक्ता (व्यक्ति) एवं ⁴भोग्य (पदार्थ) -- जो कि यथार्थत: ”भोक्तृत्व (आसक्ति) के फलार्थ स्वरूप” उसके
घटित परिणाम: ¹सम या ²विषम परिमाण" -- के कारक घटकों में निहित पदार्थ के मूल तत्व, जो कि उस पदार्थ की पारमाणविक-धर्मिता (जैसे जल की धर्मिता उसका गीलापन) के उपादान (कारण) की "फलप्रदायी-क्षमताओं” की परिणति, सदैव भिन्नांश (अलग अलग) होती है, वही वितर्कोत्तर का प्रमुख उपादान (कारक कार्य एवम् कारण) है। सभी मानस-जन एक भ्रान्ति के पोषक है तथा वे यह समझतें है,
यथा -
भ्रान्ति:
सर्वेषु परब्रह्म विद्यते यथा,
सर्वम् ज्ञानम् मयि विद्यते।
अर्थात् जिस प्रकार समस्त जीवों में परमात्मा स्थित है, उसी प्रकार समस्त ज्ञान मुझमें विद्यमान है।
यथार्थ:
न कश्चित् कस्यचिन्मित्रम्,
न कश्चित् कस्यचिद्रिपु:।
व्यवहारेण जायन्ते,
मित्राणि रिपवस्तथा।।
संक्षेप में, न कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु है, व्यवहार से ही मित्र तथा शत्रु जाने जाते हैं।
सम्यक् दृष्टिकोण एक विकल्प:
सम्यक् दृष्टिकोण एकमात्र विकल्प है, जो कि अनुकूल परिवेश उत्पन्न करता है, असंख्य घटकों के दुस्साध्य प्रभाव को विनिष्ट करके आपसी सद्भाव एवंम् सौहार्दपूर्ण वातावरण तथा सुखद जीवनशैली का परिचायक होगा, अतः हमें सदैव सम्यक् दृष्टिकोण का भाव जागृत करना चाहिए।
सम्यक् दृष्टिकोण एक सुविचार:
अयम् निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
उक्त सुभाषितानी सुक्ति का उल्लेख विष्णु शर्मा द्वारा रचित प्रसिद्ध कृति पञ्चतन्त्रम् में वर्णित है।
अयम् (यह), निज: (स्व), परोवेति (पराया है), गणना (मानना, समझना), लघु (निम्न, छोटा, संकुचित), चेतसाम चित्तवृत्ति), उदार (उदात्त, कृपालु), चरित (चरित्र), वसुधैव (पृथिवी) कुटुम्बकम् (परिवार)
अर्थात् यह मेरा है, यह पराया है (अर्थात् मेरा नहीं है), ऐसा लधु अर्थात् निम्न या संकुचित चित्तवृत्ति वाले पुरुष ही ऐसा सोचतें हैं, उदार चरित्र वाले पुरुषों, अर्थात् उदात्त भावना (विचार) रखने वाले पुरुषों के लिए तो यह सम्पूर्ण पृथ्वी ही कुटुम्ब है।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया।
भँवरलाल दाधीच।
दिनाँक: ०७-०७-२०२२
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