भारतीय गणतन्त्र -- बदलता हुआ एक नया स्वरूप:

भारतीय गणतन्त्र -- बदलता हुआ एक नया स्वरूप:
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हमारा भारतीय गणतन्त्र गत कुछ वर्षों में अपने मूल स्वरूप को बदल कर, आकाश में रफाल जैसे तीव्र गतिज-वायुयान के वेग से भी अधिक अबाध गति से उड़ने लगा है, २०१४ से बागडोर नये चालक के हाथ जो है -- चालक से मेरा तात्पर्य संघ के सर-संचालक से नहीं है।

देश में बहुचर्चित प्रदेशों में उदाहरणतः उत्तर प्रदेश में बहती सुर सरिता में नाविक बनकर तैरने लगा है -- नाविक अर्थात् कोविड १९ में नदियों में तैरती लाशों के विषय में आप कल्पना कर सकतें हैं, लेकिन मैंने तो ⛵ नाविक ही समझा जिसने तैरना सीख लिया और डूबा नहीं -- तो नाविक की संज्ञा ही तो सर्वोचित है।

 गुजरात में लोकतन्त्र चारदीवारी में अपने ही घरों सिमटकर बैठा है -- अन्यथा न लें सुरक्षा की दृष्टि से यह उचित था जब अमेरिका का राष्ट्रपति आता है तो उसकी सुरक्षा पक्की दीवार बनाकर कर दी गई।

नए गणतन्त्र के नये नायक २०१४ के उपरान्त से ही एक स्थान पर तो टिकता ही नहीं है, जब कभी प्रतिकूल दृश्यावलोकन करके उदास हो जाता है, तो करोंड़ों के रथ को सजाकर एक-आधी-घटी भर, अभिराम-सेतु जैसे की पंजाब पर पड़ाव डाल देता है, और लौट आता है, भले ही शान्ति न मिली हो, गणतन्त्र तो चुप चाप मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकता है -- और रहा भी नहीं सबने ताण्डव देखा है, पंजाब में एक सेतु पर।

नये गणतन्त्र के नये बदले स्वरूप ने बहुत कुछ बदल दिया है, वह भी बिना किसी भेद भाव के, किसी को भी अछूता नहीं छोड़ा, चाहे दूकानदार हो, छोटा बड़ा व्यापारी हो, युवा या विद्यार्थी वर्ग हो, मासूम बच्चियाँ अथवा मजदूर या किसान हो।

बदलाव तो बहुमुखी हुआ यह सत्य है लेकिन विकास केवल द्विमुखी रह गया - "परिवार नियोजन का पालन भी आवश्यक था" जैसा कि "द्विमुखी विकास"  ”हम दो हमारे दो" -- "विकास पुरुषों" को विश्वास पटल पर स्थापित कर दिया।

हमारे नये गणतन्त्र की विशेषता है कि यह विविधताओं का प्रतीक है, समता एवं विषमता इसके दो चक्षु है -- नया दण्ड विधान भी बदल गया है, नये गणतन्त्र का समर्थन नहीं करने वाले लोगों को विशेषत: दण्डित किया जाता है और दोषी समझ भी नहीं पाता है कि वह दण्ड भोग रहा है अथवा उसके समर्थन के कर्मों का प्रतिफल है।

उदाहरणतः बहुत से घरों में चुल्हे नहीं जलते, कहीं शराब एवं जुए में लोग धन लुटा रहें हैं, तो कहीं विद्यार्थी लाठियों की मार खाकर घर लौटतें हैं।

किसान कड़कड़ाती सर्दी में, चिलचलाती धूप में, तथा गड़गड़ाती बारिश में रात दिन मेहनत करके, भूखे पेट सोकर, स्वयं फटे पुराने कपड़े-जूतों में जीवन जीता है अपितु अपने बेटे को, विद्यालय की पोशाक खरीदकर देता हैं, ताकि एक दिन उसका बेटा भी अधिवक्ता, न्यायाधीश, डाॅक्टर, मेजर, कर्नल, सिपाही या व्यापारी बन जाये।

नौकरी के चक्कर में जब किसान का बेटा - हाथ पैर तुड़वाकर घर लौटने पर चुपचाप माँ से कहता है, बीमार पिताजी को नहीं बताना है, उन्हें बहुत कष्ट होगा।

माँ को यह बात सुनकर कितना कष्ट हुआ होगा कि एक पीएचडी किए हुए बेटे को चपरासी जैसी तुच्छ नौकरी भी केवल इसलिए नहीं मिली कि, पढ़ें लिखे लाखों युवाओं ने केवल एक चपरासी के पद की नियुक्ति के लिए आवेदन कर दिये, और ये आवेदन ही उस भर्ती को ही रद्द करने का कारण बन गया जो कि लाठियों के रूप में सांत्वना पुरस्कार था।

नये गणतन्त्र का विरोध करना अपराध है, चुप्पी रखने में भलाई है, आवश्यक भी है, कभी भी, कहीं भी, किसी के द्वारा भी आवाज उठाने पर उसकी वाणी बन्द कर दी जायेगी।

सब जगहों पर भिन्न-भिन्न चौकीदार निगरानी में लगे हुए हैं -- चाहे वह फेसबुक हो, ट्विटर हो, न्यूज चैनल हो, समाचार पत्र हो या वाट्सअप हो या सड़के तथा गली कूचे हो।

देश पर मर मिटने वालो जवानों के माँ-बाप,आँसुओं से फसलों को सीचतें है, फसल होती है, खुशी भी होती है।

कभी महाजन, लूटता है, कभी सरकार, कभी पुलिस हाथ पैर तोड़कर घर वापस भेज देती है, कभी आतंकी समझकर जेल से १० वर्ष बाद, न्यायालय यह कह कर छोड़ता है कि पुलिस कोई साक्ष्य प्रस्तुत ही नहीं कर पाई।

घर में पिता अब नहीं रहे, माँ को आँखो से दिखाई नहीं देता है, बेटी ससुराल में है, बेटा अब कुछ भी देखने, सुनने या समझने लायक ही नहीं रहा है।

दूरदर्शन पर प्रति वर्ष २ करोड़ युवाओं को नौकरियाँ देने का समाचार सुनकर, एक बार पुनः प्रसन्नता हुई, सोच में डूबा जाता है, इसी उधेड़बुन में सोचता है, तब तक मेरा पैर भी पूरी तरह ठीक हो जायेगा - घर में पुनः खुशहाली होगी।

इस बार भी नौकरी के लिए आवेदन तो किया था - लेकिन फिर वही हुआ, जो पिछली बार हुआ था -- अन्तर केवल इतना था कि पुलिस ने इस बार दाहिने हाथ-पैर पर लाठियाँ बरसाई थी।

कारण यह था बायें पैर से लंगड़ाते हुए चल रहा था -- पुलिस वाले भी मनुष्य ही थे, इतनी मानवता तो उनमें भी बची हुई थी, वे जानते भी थे, कि यह भी हमारी तरह ही एक मनुष्य है -- कोई पशु अथवा राक्षस तो है नहीं।

आत्मियता दिखाते हुए पुलिस ने घूरते हुए फटकारा -- इधर-उधर क्यों आवारा पशु की भांति घूमते रहते हो, पढ़ाई लिखाई करते, अधिक नहीं तो मेरी तरह सिपाही तो बन ही जाते, अन्ततः।

श्रीमन् ! मैंने पीएचडी की है -- अच्छा !,  घर लौट जावो,  मैंने भी पीएचडी करके ही सिपाही का पद पाया है. बस कुछ थोड़ा बहुत खर्च  ........ जय श्रीराम, भारत माता की जय, वन्देमातरम्।

गणतन्त्र दिवस पर -- राष्ट्रगान की धुन  तथा भारत माता की जय-जयकार के साथ प्रजातन्त्र मनाकर सभी प्रति वर्ष की भाँति अपने अपने घर लौट आतें हैं।

भले ही अमर जवान ज्योति अब नहीं है, भले ही गण का गण-तन्त्र तथा उसका स्वरूप बदल गया है, अपितु हमारा भारतीय संविधान अभी भी मौलिक अधिकारों के साथ जीवित है, संविधान से ही सतत् प्रवाहित जीवनदायिनी प्राणवायु सदैव एक सूत्र में माला के मनकों की तरह पिरोकर रखें हुए हैं -- हमें हमारे संविधान में पूर्ण आस्था है -- हम पुनः अपने संवैधानिक गण-तन्त्र का नया सुसरित प्रवाह कर देंगे।

नूतन गणतन्त्रदिवसोत्सवः समायोजयत् इति।

जय हिन्द।
भँवरलाल दाधीच।

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