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दृष्टिकोण: एक विभेदकारी प्रज्ञा:

दृष्टिकोण  तथा चेतना: सामान्य व्यक्ति अपनी धारणाओं को क्षण-प्रतिक्षण एक दूसरे के प्रति अधिकांशतः अकारण ही  बदलता रहता है -- यह आपसी विद्वैष का एक मूल कारण है, जो कि सदैव स्वयम् प्रज्ञा का अभाव है, तथा स्वयम्-प्रज्ञा का यही अभाव समभाव एवम् सम्यक् दृष्टिकोण के भाव को दूषित करके अहम्-भाव को जागृत कर देता है। Pl संस्कृत सुभाषितानी में प्रज्ञा के सन्दर्भ में एक श्लोक है जो इस तथ्य को प्रबलता से सिद्ध कर करता है -- यस्य नास्ति स्वयम् प्रज्ञा, शास्त्रम् तस्य करोति किम्। लोचनाभ्याम् विहीनस्य, दर्पण: किम् करिष्यति।। अर्थात् जिसके पास स्वयम् की बुद्धि (ज्ञान) नहीं है, उसका शास्त्र भी भला नहीं कर सकते हैं, जैसे आँखों से अन्धे के लिए दर्पण क्या कर सकता है। यही कारण है स्वयम्-प्रज्ञा का अभाव, भिन्न तथा त्रुटि पूर्ण दृष्टिकोण के कारण ही, कदाचित् विवेकीजन भी " पूर्ण चेतना" से निर्णय लेने के उपरान्त भी लक्ष्य प्राप्ति में असफल हो जातें हैं, कारण, " सम्पूर्ण चेतना " के अवकाश का होना है, ऐसा इसलिए है, क्योंकि  पूर्ण एवम् सम्पूर्ण में अन्तर है -- पूर्ण है, अपितु सम्पूर्ण नहीं ह...